पहला स्व. लज्जाराम मेहता स्मृति पुरस्कार श्री
‘मयूख’ को. पं0 लज्जाराम पर श्रीमती संतोष नागर की लिखी पुस्तक का भी
लोकार्पण.
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समारोह में डा0 संतोष नागर की पुस्तक का विमोचन करते अतिथि बायें से संयोजक डा. अतुल चतुर्वेदी, कोटा वि.वि. के
पत्रकारिता विभाग के ऐसोसिएट प्रो0 सुबोध अग्निहोत्रि, अध्यक्ष समारोह श्री कैलाश चंद्र सर्राफ, मुख्य अतिथि सम्भागीय आयुक्त
श्री रघुवीर सिंह मीणा, लेखिका डा. संतोष नागर, पं; लज्जाराम मेहता स्मृति सम्मान पाने वाले श्री बशीर अहमद 'मयूख' और
समारेाह आयोजक डा. औंकारनाथ चतुर्वेदी |
कोटा.
नेहरू जयंति 14 नवम्बर को शहर के प्रख्यात रोटरी संस्थान द्वारा प्रायोजित बूँदी के प्रख्यात
साहित्यकार पत्रकार स्व. लज्जाराम मेहता स्मृति सम्मान समारोह दोपहर तीन बजे
कोटा बूँदी के प्रख्यात साहित्यकारों विद्वानों के साक्ष्य में आरंभ हुआ. इस
कार्यक्रम के अध्यक्ष मंडल में थे शहर के जाने माने श्रेष्ठि श्री कैलाश चंद्र सर्राफ, अध्यक्ष,
समारोह के मुख्य अतिथि सम्भागीय आयुक्त श्री रघुवीर सिंह मीणा, कोटा विश्वविद्यालय
के पत्रकारिता विभाग के एसोएिट प्रोफेसर डा0 सुबोध अग्निहोत्रि, स्व. लज्जाराम
मेहता पर लिखी पुस्तक की लेखिका श्रीमती संतोष नागर, पहले स्व. लज्जाराम मेहता स्मृति सम्मान प्राप्त
करने वाले कोटा के साहित्य रत्न श्री बशीर मोहम्मद ‘मयूख’ और प्रख्यात साहित्यकार
जिन्होंने इस कार्यक्रम को आयोजित करवाया वे डा0 औंकारनाथ चतुर्वेदी थे.
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समारोह का शुभारंभ सरस्वती पूजन और
दीप प्रज्ज्वलन करते संभागीय आयुक्त |
सर्वप्रथम मंच संचालक एवं संयोजक साहित्यकार डा0 अतुल चतुर्वेदी ने सभी अतिथियों को मंच पर आमंत्रित किया. सभी के मंचासीन
होने के पश्चात् समारोह का आरंभ सरस्वती पूजन और दीप प्रज्ज्वलन के साथ आरंभ
हुआ. सभी मंचासीन अतिथियों ने सरस्वती पूजन कर दीप प्रज्ज्वलित किया. कोटा
आकाशवाणी की उद्घोषक एवं गायिका श्रीमती तृषा झा द्वारा सरस्वती वंदना की गई- ‘जय
जय हे भगवती सुर भारती तव प्रणमाम:, नाद ब्रह्म मयी जय वागेश्वरी शरणं ते गच्छाम:।’
सरस्वती
वंदना के पश्चात् श्री औंकारनाथ चतुर्वेदी एवं अन्य वरिष्ठ साहित्यकारों ने
सभी मंचासीन अतिथियों को माला पहना कर स्वागत एवं अभिनंदन किया. संयोजक श्री अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि हिन्दी की यात्रा जो 18वीं
शताब्दी से गद्य लेखन की परम्परा विधिवत् रूप से शुरू हुई जिसके आदि प्रवर्तक के
रूप में भारतेंदु हरिश्चंद्र को हम अच्छी तरह जानते हैं, उस परम्परा, गद्य लेखन
की शृंखला को आगे बढ़ाने में देवकीनंदन खत्री के साथ-साथ उस समय अगर किसी उपन्यासकार
ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया उनमें स्व. लज्जाराम मेहता का नाम सर्वप्रथम
है. आचार्य रामचरण शुक्ल ने अपने प्रमुख ग्रंथ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में उनका
महत्वपूर्ण उल्लेख किया है, बाद में कालांतर में पत्रकारिता पर पुस्तकें आईं, चाहे वे वेदप्रताप वैदिक की पुस्तक रही हो या आलोक मेहता की पुस्तक या अन्य
दूसरे पत्रकार की जिन्होंने पत्रकारिता पर पुस्तक लिखीं हैं, लज्जाराम मेहता का
उल्लेख पत्रकार के रूप में अवश्य किया है. अपने जीवन काल में उन्होंने अनेक
उपन्यासों की रचना की, इतिहास के महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना उन्होंने की, उस समय
के ‘सर्वप्रिय’ अखबार का सम्पादन उन्होंने किया, और तमाम साहित्यिक और साहित्येतर
जुड़ी हुई गतिविधियाँ हैं, उनमें वे संलग्न रहे, यह अलग बात है कि आगे उनके
साहित्यिक व पत्रकारिता के योगदान को इतिहास में बहुत ज्यादा रेखांकित नहीं किया
गया, इसलिए हमारे डा0 साहब का तो स्टाइल ही यही है कि जिन्हें कोई रेखांकित नहीं
करता उनका बीड़ा वे उठा लेते हैं, आपको स्मरण होगा कि आपने कुछ दशक पूर्व बूँदी
के ही सूर्यमल्ल मिश्रण पर भी उन्होंने बहुत बड़ा कार्यक्रम सम्पन्न करवाया था,
जिसमें देश के ख्यातनाम साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी उपस्थित हुए थे और पिछले कई वर्षों से उन पर एक डाक टिकिट भी जारी करवाया जाना था, किंतु राज बदला तख्त
बदला और वह कार्य अधूरा रह गया. उसी
शृंखला में वे प्रयासरत रहे हैं. स्व0 लज्जाराम पर भी डाक टिकिट जारी करवाने का
कार्य अभी पाइप लाइन में हैं, यह प्रोजेक्ट माननीय संभागीय आयुक्त के साथ वार्ता
कर पुन: आरंभ किया गया है. डा. अतुल ने कहा कि पिछले दिनों डा0 उषा झा ने उन्हें
श्रीमती संतोष नागर की पुस्तक जो ''स्व. लज्जाराम जी की आपबीती'' उन्होंने पढ़ने
को मिली उसे पढ़ कर महूसूस हुआ कि उन दिनों कितना संघर्ष किया जाता था, एक जगह वे
लिखते हैं कि एक बार माउंट आबू में थे वे रोज 1500 फुलस्केप कागज लिखडाले थे, या
तो मैंने ओशो आचार्य रजनीश के बारे में पढ़ा है कि वे 2100 पृष्ठ रोज पढ़ा करते
थे, तब 1 घंटे का उद्बोधन दिया करते थे. मेरे कहने का तात्पर्य है कि पहले कितना
पढ़ता-लिखना पड़ता था, जब आज की तरह कम्प्यूटर, टाइपराइटर आदि जैसी सुविधायें
नहीं थीं. वे दो दो तीन तीन उपन्यासों को एक साथ लिखा करते थे, सभी मूल लेखक के भाव
थे, कहीं से कोई भाव या विषय हरण नहीं किया लिए हुए नहीं थे. डा0 अतुल ने इस समूचे
कार्यक्रम का क्या उद्देश्य रहा है, क्या निमित्त रहा है इसके पीछे, हम क्या
चाहते हैं इस कार्यक्रम के माध्यम से, इसे रेखांकित करने के लिए और विषय प्रवर्तन
के साथ साथ सम्माननीय अतिथियों के स्वागत के लिए भी दो शब्द कहने के लिए भी डा. औंकारनाथ चतुर्वेदी को आमंत्रित किया.
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विषय प्रवर्तन के अंतर्गत समारोह के औचित्य पर
व्याख्यान देतेे समारोह के आयोजक डा0 औंकारनाथ चतुर्वेदी |
डा0
औंकारनाथ चतुर्वेदी ने कहा कि यह तपोभूमि है जहाँ आप बैठे हैं, यह वह कोटा है जहाँ
बनारस से चल कर गागरोन तक चल कर संत रामानंद ने अपने चालीस शिष्यों के साथ यात्रा
की थी, पिछले दिनों जब मैंने सूर्यमल्ल्ा मिश्रण पर कार्यक्रम करवाया था, तब
बताया था कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय बूँदी का वह पेड़ जिसके नीचे स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों लाशों के ढेर
लगे रहते थे, जिसका आज भी साक्षी है बूँदी का वह पेड़, तांत्या टोपे बूँदी और कोटा से
निकला था, उन दिनों, सूर्यमल्ल ने उन सबको देखा, उस समय उनके सिवा कोई भी
इतिहासकार, कोई भी राजघराना ईस्ट इंडिया कं. के खिलाफ कोई भी एक शब्द नहीं लिख
सका था, लिखा भी तो तकिए के नीचे दबाए रखा, केवल सूर्यमल्ल मिश्रण मुखर रहा. जिसको
हम स्वतंत्रता का प्रथम आंदोलन कहते हैं, वह पराजय या पराभव का इतिहास नहीं है,
आज जो हम जो भी कर रहे हैं, कुछ भी बना रहे हैं, इस भारत को सम्पूर्ण करने का इस
देश को बनाने का एकजुट करने का यदि श्रेय जाता है तो वह हिन्दी साहित्यकारों और
पत्रकारों को. जिन्होंने अपने घर बेचे, अपनी सुविधायें बेचीं, अपनी सघन दरिद्रता
को वहन करते हुए हिन्दी को महान् बनाने की कोशिश की. 1857 की क्रांति के बाद हम
रुके नहीं, हम टूटे नहीं, बिखरे नहीं, 647 रियासतों को एक करने का दायित्व लिए, आप
सोचिए, किस तरह इस देश को महान् बनाया, देश की जनता ने, अपना सबकुछ त्यागते हुए,
फाँसी के फंदों पर झूलते हुए, उस जमाने में जब फारसी राजभाषा थी, ईस्ट इंडिया का
शासन था, सेंट जार्ज में हिंदी पढ़ाने के लिए बिल क्राइस्ट लल्लू लाल सदन मिश्र
को आमंत्रित कर रहे थे, देवकीनंदन खत्री ने हिन्दी को जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई थी, उनके तिलिस्मी उपन्यासों चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, भूतनाथ ने दे
भारत में हिंदी की अभिरुचि ही नहीं जगाई बल्कि उसके आगे बढ़ाया और एक वर्ग खड़ा कर
दिया, नहीं तो भारत में राजनैतिक नेतृत्व था ही कहाँ, ऐसे समय में उदय हुआ लज्जा
राम मेहता का, नहीं तो यह देश तिलिस्म और जादूगरी, फेंटेसी में खो रहा था. लज्जा
राम को लगा कि यह देश कहीं गलत दिशा में जा रहा है. एक ऐसा व्यक्ति जिसकी
मातृभाषा हिन्दी नहीं, वे गुजराती थे, देश में राजभाषा फारसी थी, उन्होंने बूँदी
में रह कर 'सर्वहित' नाम का अखबार दस वर्षों तक निकाला और हिन्दी की चेतना जगाई.
इसलिए सर्वप्रथम इन पत्रकारों को नमन करना होगा, जिन्होंने इस देश को महान् बनाया.
सात्विक लज्जाराम उन दिनों बूँदी से कोटा पैदल आते थे, नल का पानी नहीं पीते थे,
कुँए से पानी निकालते थे, मुंबई में भी उन्होंने अपनी सात्विकता को बचाये रखा, वे
उज्जैन गये जहाँ उन दिनों शिप्रा नदी के किनारे श्रीकृष्णदास धर्मशाला जहाँ उस
समय का प्रख्यात वैंकटेश्वर समाचार पत्र चलाया था, प्रेस चला करती थी, उस समय गीताप्रेस गोरखपुर नहीं थी. इसके पहले सम्पूर्ण भारत की धार्मिक पुस्तकें, पत्रकारों के लेख यहीं छपा करतेे थे, पुस्तकें, उपन्यास छपा करती थीं, लज्जाराम यहाँ आकर सम्पादक बन गये. प्रख्यात
उपन्यासकार यशपाल जिन्होंने ‘सिंहावलोकन’ पुस्तक लिखी थी, जिसमें उन्होंने स्वतंत्रता
आंदोलन के सभी क्रांतिकारियों के बारे में लिखा है, उसमें उन्होंने भगत सिंह के बारे में लिखा था कि वे लाहौर जेल
में वैंकटेश्वर समाचार पत्र के एक पन्ने को बिछाते थे और एक को ओढ़ते थे, कितना
बड़ा समाचार पत्र था वह उस समय का. ऐसे प्रेस में काम करते हुए उन्होंने कई उपन्यास
लिखे, वे इतने प्रख्यात हुए कि नागरी प्रचारणी सभा के श्यामसुंदरदास को उनके
उपन्यास से वहाँ से बनारस मँगवाना पड़ा. अश्रुमती एक उपन्यास था और एक था चित्तौड़
चाँद जिसमें इतिहास पर लिखी गई अश्लील टिप्पणी के कारण लज्जाराम
ने एक आंदोलन छेड़ा और उन सभी प्रतियों को बनारस में गंगा में बहाना पड़ा, ऐसी
होती है पत्रकारिता, यह है हमारे देश की नैतिकता, साहित्य का मार्गदर्शन. यह सब
बातें मैं इसलिए बता रहा हूँ कि 1920 के बाद के लड़ी गई भारत की स्वतंत्रता
आंदोलन की लड़ाई और 1947 के बाद के माहौल जिसने हिंदी पत्रकारों, हिन्दी साहित्य
और साहित्यकारों को हाशिये पर टॉंग दिया. आज राजतंत्र ने सामंततंत्र स्थापित कर
दिया है, ये सर्वेसर्वा सामर्थ्यवान राजनेता बन गये हैं और लोभ और लालच के कारण सारी
सुखसुविधा वे भोग रहे हैं और साहित्यकार, पत्रकार, वही दरिद्रावस्था में हैं. उन्होंने कहा कि हर
देशकाल की एक अनिवार्यता होती है, मेरे समय के साहित्यकार, मेरे साथी जानते होंगे
कि 1962 की स्थिति क्या हो गयी थी, जब चीन ने आक्रमण किया था और कुछ दिन बाद 1965
में पाकिस्तान से युद्ध हुआ, तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने देश की अस्मिता को बचा तो लिया किंतु उसकी कीमत ताशकंद समझौते में उन्हें अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी. राजस्थान
की संस्कृति के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि यहाँ की वीर माताओं ने
रणबाँकुरों को जन्म ही नहीं दिया अपनी अस्मिता बचाने के लिए प्राण तक न्योछावर
किये हैं. यही किया लज्जाराम ने, तिलिस्म और जादूगरी का मोह खत्म करने के लिए
हिन्दी पत्रकारिता की अलख जगाई और देश को एकत्रित कर चेतना जगाई अन्यथा देश कल्पना
लोक में खो जाता. बूँदी में उस समय 7 लाख किताबें लाइब्रेरी में थीं. छोटा काशी
कहलाता था बूँदी, संस्कृत की बड़ी पीठ थी, सूर्यमल्ल मिश्रण और लज्जराम जैसे
साहित्यकार पत्रकारों की भूमि बूँदी आज बहुत ही विषाद में जी रही है. मैंने अपना
कर्तव्य निभाया, मैंने दो महापुरुषों का सेटेलाइट पर रख कर ऊपर पहुँचा दिया, मैं
उऋण हुआ अपने जन्म से. अब आज के कोटा युवा साहित्यकारों, ओम नागर, रामेश्वर प्रकाश
रम्मू भैया, अतुल चतुर्वेदी और पत्रकारों को
अब यह दायित्व भावी पीढ़ी को सौंपता हूँ, पर याद रखना समाज का मार्गदर्शन सिर्फ
साहित्यकार ही करेगा, समाज को उन लोगों से बचा के रखना है, उन मतलबियों से जिन्होंने राजतंत्र को सामंततंत्र बना डाला है, लोकतंंत्र की गरिमा को सँभालना
होगा, जो केवल साहित्यकार ही कर सकता है, पत्रकार ही कर सकता है. भाई,
खुशामदों से जिन्दगी चलती नहीं है.
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समारोह संचालक डा. अतुल चतुर्वेदी |
उनके अभिभाषण के बाद डाा0 अतुल चतुर्वेदी ने बताया कि किस तरह साहित्य और राजनीति में अर्थतंत्र हावी हो रहा है. उन्होंने चार पंक्तियाँँ बोलते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाया- ‘देखते
जाइये कैसे हैं जमाने वाले. खुद
ही तापने बैठ गये, आग लगाने वाले. फासला
सदियों का लम्हों में तय हो जाता, दिल
मिला लेते अगर, हाथ मिलाने वाले.’ उन्होंने कहा कि दिल
मिलाने का काम कला साहित्य और संस्कृति ही करती है,
शेष सभी बाँटन का काम करते हैं, राजनीति बाँटने का काम करती है, लेकिन साहित्य
दिलों से दिलों को जोड़ने का काम करता है. पुस्तक
की लेखिका श्रीमती संतोष नागर जी का परिचय देने के लिए उन्होंने प्राध्यापक डा. ऊषा झा को आमंत्रित किया.
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पं0 लज्जाराम मेहता पर लिखी पुस्तक
की लेखिका संतोष नागर का परिचय
देती प्राध्यापिका
डा0 उषा झा |
श्रीमती उषा झा ने श्रीमती संतोष नागर के परिचय काेे इस प्रकार आरंभ करते हुए कहा
कि जीवन के प्रश्नों का उत्तर देने की
क्षमता जिसमें भी हो वही प्रतिभाशाली कहलाता है, क्योंकि हमारे जीवन में नित नई
चुनौतियाँ नित नये प्रश्न अवतरित होते रहते हैं, और जो व्यक्ति उनका जितना सटीक,
सकारात्मक, सृजनात्मक, सक्षम, उत्तर दे सकता है, वह व्यक्ति उतना ही
प्रतिभाशाली होता है. यानि प्रतिभासम्प्नन व्यक्त्िा की परिभाषा यह है कि वह
अंतर्दृष्टि सम्पन्न, दूरदर्शी, विवेकशीलता की प्रवृत्ति को अपना कर जीवन में, सभी
समस्याओं के सार्थक हल ढूँढ़ने में अपने आप को सफल पाता हो, वही प्रतिभा सम्पन्न
है. जिन्होंने पं. लज्जाराम मेहता और उनके उपन्यास पर अपने शोध को तूलिका दे कर
अपने इस साहित्याकाश को इस समरोह को आलोकित किया है वो अपने जीवन में किये
संघर्ष करते हुए अपनी रचनात्मक प्रतिभा को कोटा के साहित्य जगत् के समक्ष रखा
है, ऐसी लेखिका श्रीमती नागर को मैं साधुवाद देती हूँ. उन्होंने उनका परिचय देते हुए कहा कि आपका
जन्म कोटा के समीप सुल्तानपुर में शिक्षक परिवार में हुआ. जिनके साहित्यिक संस्कार
और माँ से प्राप्त ज्ञान को शिरोधार्य किया है. माँ, को जिन्हें उन्होंने अपनी
पुस्तक में बूँदी का जीताजागता इतिहास बताया है. ऐसी ममतामयी संरक्षण में आपका
पालन-पोषण हुआ. आपने कोटा राज. महाविद्यालय से संस्कृत से प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर
की डिग्री प्राप्त कर अपने उज्ज्वल भविष्य का शुभारंभ किया. आपने अपने प्राक्कथन
में लिखा है कि बेटी को पराया धन समझ कर प्रत्येक माता-पिता उसे वयस्क होने से
पूर्व ही उसके वृत्त को छोटा करने में
प्रयासरत रहते हैं, इसी प्रयास में उसे एक दिन रंगमंच पर उतर कर समाज एवं शास्त्र
सम्मत बेड़ी अपने पाँव में डालनी पड़ती है. कुछ बेटियाँ बहुत भाग्यशाली होती
हैं, जिन्हें पराये और अपने घर में विशेष अंतर नहीं दिखाई पड़ता, किन्तु कुछ ऐसी
अभागी बेटिया होती हैं, जिनकी स्वतंत्रता केवल घर की देहरी तक ही सीमित रह जाती
है और उनकी दिनचर्या पर प्रतिबंध लग जाते हैं, आप उच्च शिक्षा प्राप्त कर शोध
कार्य में जुट जाना चाहती थीं, लेकिन मनुष्य का सोच कभी नहीं होता जैसा कि कमलिनी
क्रोड़ में छिपा भ्रमर सुबह होने पर आजाद होना चाहता है किंतु हाथी उस कमल को तोड़
लेता है. कुछ ऐसा ही भूचाल इनके जीवन में आया और जीवन की दिशा बदल गई. विवाह के
चार वर्ष बाद ही इनकी गोद में 10 माह का शिशु दे कर इनके पति इन्हें छोड़ कर
परलोक सिधार गये. सतत संघर्ष और जटिलताओं के दलदल में फँसे रह कर आपकी दृष्टि सदा सितारों
पर टिकी रही. इसलिए जीवन से हार न मान कर अपने अदम्य साहस, जीवट एवं स्वयं के आगे
बढ़ने के साथ साथ अपने बेटे को भी अच्छे संस्कार व शिक्षा देने की इच्छा शक्ति
ने आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. 1977 में बैंक ऑफ इंडिया में लिपिक के पद
पर कार्य करते हुए बैंक के कार्य के साथ साथ बी.कॉम, सी.ए. व आई.आई.ए. बैंकिंग
परीक्षा एवं शोध कार्य साथ साथ करते हुए आप पहले बैंक की अधिकारी बनी और बाद में
मेनेजर के पद से सेवानिवृत्त हुईं. एक स्त्री के लिए उतार चढ़ावों के मध्य
चट्टान की तरह अडिग रहते हुए अपने पुत्र को इंजीनियरिंग की शिक्षा दिलवाई, जो आज भारतीय
दूर संचार निगम में जेटीओ के पद पर कार्यरत हैं. आपने सौराष्ट्र गुजरात विश्वविद्यालयसे
डा0 नीलू कोटक के निर्देशन में शोध पूर्ण किया और पं0 श्री लज्जाराम मेहता के
अलोचनात्मक उपन्यास को अपने शोध के रूप में प्रकाशित करवा कर साहित्य के
क्षेत्र में अभिवृद्धि की. अपने निकट आत्मीय रिश्तेदार होने के नाते आपको पं0
मेहताजी की व्यक्तित्व एवं कृतित्व सम्बंधी सामग्री बूँदी में सहज ही उपलब्ध
हो गई. एक ऐसे साहित्यकार, सम्पादक,
पत्रकार, कथाकार, जो अभी तक प्रकाश में नहीं आये थे जिन्होंने सर्वहित वैंकटेश्वर
समाचार पत्र का सम्पादन किया, भाषा एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में जिनका अप्रतिम
योगदान था, कुछ अंश उन्होंने प्रेमचंदजी के उपन्यास और कथा साहित्य के लिए भी
तैयार किये थे. ऐसे सक्षम व्यक्तित्व बूँदी के और वे नागर समाज के प्रतिनिधि
उनका व्यक्त्त्वि और कृतित्व सामने लाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया.
रचनाकार अपनी पहली कृति में ही अपनी शाब्दिक अमरता पा लेता है. आज वे हमारे बीच
नहीं है, लेकिन आज वो हम सब के हृदय में मौजूद हैं उन पर श्री औंकारनाथजी ने यह
कार्यक्रम रखा, वे काफी समय से मुझसे वार्ता कर रहे थे कि श्री लज्जारामजी पर एक
कार्यक्रम करवाना है, उनका व्यक्तित्व प्रकाश में आए, उन पर शोध हो, उन पर बात
आगे बढ़े, उनकी भाषा पर बात आगे बढ़े, उस समय इतनी विकसित खड़ी बोली थी कि किसी भी
अन्य भाषा का उस पर प्रभाव नहीं था.
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पुस्तक का परिचय देती लेखिका
डा. संतोष नागर |
इसी क्रम में श्रीमती
संतोष नागर जी को पुस्तक केे लोकार्पण से पूर्व अपने व्याख्यान के लिए डा. अतुल ने बुलाया. उन्होने अपनी पुस्तक के बारे में संक्षिप्त में
बताया कि कितने संघर्षों में श्री लज्जाराम जी ने अपना जीवन व्यतीत किया. अनेक
भाई बहिनों का जन्म हो कर मर जाने से वंशवृद्धि की अंतिम आशा में उनका जन्म हुआ और उन्होंने वंश की लाज रखी इसलिए उनका नाम लज्जा राम रखा गया. आरंभ से ही उन्हें
हिन्दी समाचार पढ़ने का शौक था, तब उन्हें जिज्ञासा हुई कि बूँदी से भी एक
समाचार पत्र निकाला जाए ताकि बून्दी वालेे हिन्दी पढ़ने को प्रवृत्त हों. उन्होने
1890 में वहाँ पाठशाला के खर्च से गुंजाइश निकाल कर पाक्षिक पत्र ‘सर्वहित’ आरंभ
किया जो दस वर्ष तक चला. उसमें न तो राजनीति खबरें होती थीं और न ही बून्दी की
भली बुरी खबरें दी जाती थीं. पत्र बहुत होनहार था और बाहर और राज्य में इसके
ग्राहक बढ़ने लगे थे. मूल्य इसका राज्य में दस आना और डाक द्वारा 1 रुपया था. इसके
प्रभाव से ‘सर्वहित’ पत्र में किसी लेख पर झूठे आरोप लगा कर शिक्षा विभाग और
रंगनाथ प्रेस को प्रतिबंधित कर दिया गया. इस प्रकार श्री लज्जाराम जी का मुंबई
जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ. उनकी निष्पक्षता और सात्विकता, सत्यनिष्ठा से उन्हें
मुंबई के ज्ञानसागर प्रेस के स्वामी पंडित किशन लालजी तक पहुँचा दिया. उन्होंने
बताया कि श्री लज्जाराम जी प्रणीत 24 पुस्तकों में से 22 की जानकारी नागरी
प्राचरणी सभा काशी (बनारस) के सौजन्य से प्राप्त हुईं. तीन पुस्तकें राजस्थान
प्रेस से, 15 श्री वैंकटेश्वर प्रेस उज्जैन से प्रकाशित हुईं, एक प्रारिणी सभा द्वारा
प्रकाशित करवायी गयीं तथा एक काशी नगरी से प्रकाशित हुई. एक पुस्तक अमुद्रित थी,
शेष को दीमक चाट गयी थी.
अपरिहार्य
कारणों से प्रशासनिक बैठक में उपस्थित होने के लिए जाने से पूर्व बीच में ही सम्भागीय
आयुक्त श्री रघुवीर सिंह मीणा एवं अन्य मंचासीन अतिथियों के करकमलों से श्रीमती
संतोष नागर की पुस्तक ‘पं0 लज्जाराम मेहता एवं उनकी आपबीती’’ का लोकार्पण किया
गया. श्री मीणा ने अपने संक्षिप्त भाषण में कहा कि मैं अनेकों जिलों में अपने
प्रशासनिक पदों पर रहा हूँ, वहाँ इक्के दुक्के साहित्यकारों व साहित्यिक
कार्यक्रमों में उठ बैठ हुई है, किन्तु कोटा जैसा साहित्य वैभव उन्होंने कहीं
नहीं देखा, यहाँ साहित्यकारों का भण्डार है, मानो यहाँ साहित्य की सरिता बहती
है. उन्होंने बताया कि साहित्य
हमारे इतिहास की धरोहर हैं, बूँदी के इन
दो महापुरुषों के लिए श्री औंकारनाथजी ने जो आयोजन किये हैं वे सराहनीय हैं, उनके
प्रोजेक्ट पर हम कार्य कर रहे हैं, शीघ्र ही प्रशासनिक स्तर पर इसे प्रभावशाली
तरीके से निर्णय लिया जाएगा और शीघ्र ही इसमें सफलता मिलेगी, ऐसी आशा है. जाने से
पूर्व श्री मीणा का श्री औंकारनाथजी चतुर्वेदी द्वारा शॉल, श्रीफल दे कर सम्मानित
किया गया.
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कोटा वि.वि. के पत्रकारिता विभाग के एसो. प्रो0 सुबोध अग्निहोत्रि
को सम्मानित करते अतिथि बायें से डा. औंकारनाथ चतुर्वेदी,
डा. अग्निहोत्रि, श्री मयूख, श्री सर्राफ, डा. नागर, डा. ऊषा झा |
कार्यक्रम
की अगली कड़ी के रूप में कोटा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में एसोसिएट
प्रोफेसर के पद पर कार्यरत डा0 सुबोध अग्निहोत्रि का का व्याख्यान हुआ. उनहोंने
स्वतंत्रता आंदोलन से आज तक के पत्रकारिता के कालखंड को दो भागों में बाँट कर उसे
परिभाषित किया और बताया कि किस तरह आज की हिन्दी पत्रकारिता उस समय से भिन्न थी.
पहले पत्रकारिता और साहित्य का सीधा सम्बंध था लेकिन आज विद्वत्ता या दूसरे शब्दों
में कहिए विषय विशेषज्ञ विशेष कर हिन्दी विशेषज्ञ की बहुत कमी है. आज पत्रकार भी
तीन खेमों में बँटा हुआ है. सबसे निचले स्तर का पत्रकार बंधुआ मजदूर की तरह काम
करता है, बीच का ऊपरी तंत्र से सामंजस्य बैठा कर कार्य करता है और सर्वोच्च आसीन
पत्रकार जो आज ‘सीओई’ जैसे पदों पर आसीन हैं, जो पूरी तरह से अंग्रेजी में बोलते
हैं, लिखते हैं, हिन्दी नहीं जानते, बस अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद कर हिन्दी
समाचारों को रिव्यू किया जाता है. आज भी हिन्दी विशेषज्ञों की कमी है. आज
अर्थशास्त्र और गणित का प्रभाव बहुत है, कभी पत्रों के लिए 1 हजार करोड़ वार्षिक
का विज्ञापन आदि का व्यवसाय होता था, किंतु आज हजारों करोड़ रुपये का व्यवसाय होने लगा है, साहित्य और विशेषकर हिन्दी साहित्य की स्थिति दयनीय है. आज भी पत्रों
में अंग्रेजी का प्रभाव ज्याद है, तकनीक का प्रभाव अंग्रेजी से अलग नहीं होने
देता. उत्तर प्रदेश के अमर उजाला और दिल्ली के हिन्दुस्तान से लंबे समय तक
जुड़े श्री सुबोध अग्निहोत्री ने यह कह कर अपने वक्तव्य को खत्म किया कि आज
पत्रकारिता या किसी भी क्षेत्र में कुछ कर गुजरने के लिए जुनून होना आवश्यक है,
आपको अच्छे से बहुत अच्छा करने के लिए
जुनून पैदा करना होगा.
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श्रीफल व शॉल उढ़ा कर श्री मयूख को सम्मानित करते अतिथि बायें से डा. उषा झा, डा.
अतुल चतुर्वेदी, डा. औंकारनाथ चतुर्वेदी, श्री मयूख, श्री कैलाशचंद्र सर्राफ, डा. संतोष नागर |
आखिर
में कोटा के रत्न, मुस्लिम सम्प्रदाय से सम्बंधित होने के बावजूद उनकी जीवन में
गीता, वेद पुराणों के प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, उन्होंने शहर में
अपने उपनामकरण से एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया ‘मयूखेश्वर महादेव’ और आज भी
नित्य वहाँ जाना उनकी दैनिंदिनी का एक क्रम है, कम शिक्षित होने के बाद भी वेदों
की ऋचाओं का अनुवाद कर ख्याति प्राप्त की, ओमान (मस्कट) में जिन्होंने वेदों
की ऋचाओं का कुरान पर प्रभाव पर अपना वाचन करने के लिए बुलाया गया. उनकी एक कविता ''एक बच्चे
की हँसी'' विदेशी पाठ्यक्रमों में अनुवाद के साथ पढ़ाई जाती है. आप राजस्थान में
विशेष कर हाड़ौती संभाग के पहले साहित्यकार है जिनको उनके साहित्यिक अवदान पर के.
के. बिड़ला का बिहारी सम्मान मिला. ऐेसे ही अनेकों सम्माानों से नवाजें गये सदी के
अंतिम दशक में यात्रा कर रहे स्वस्थ श्री मयूख को पहला 'पं0 लज्जाराम मेहता स्मृति
सम्मान' समारोह के अध्यक्ष श्री कैलाश चंद्र सर्राफ ने शॉल उढ़ा कर किया, श्री
औंकारनाथ चतुर्वेदी ने उन्हें श्रीफल भेंट किया. साथ ही सभी अतिथियों ने इस समरोह
की 'स्मारिका' भी लोकार्पित की. श्री मयूख के जीवन चरित्र पर उनके साथ लगभग पाँच
वर्षों तक पुत्रवत उनके साथ रह कर साहित्यिक भ्रमण कर चुके कोटा के साहित्यकार
श्री रामेश्वर शर्मा ‘रम्मू भैया’ ने उनके जीवन के साहित्यिक अनछुए पहलुओं, उनकी साहित्यिक
उपलब्धियों और सम्मानों व अपनी साहित्यिक यात्राअें के संस्मरणों को बेहद रोचक
तरीके से प्रस्तुत किया.
कार्यक्रम
में खचाखच भरे सभागार में शहर के सभी प्रख्यात साहित्यकारों की उपस्थित गौरवमयी
रही. ख्यात नाम साहित्यकार श्री नंदन चतुर्वेदी, श्री महेंद्र नेह, श्री हितेष
व्यास, श्री शकूर अनवर, श्री ओम नागर, चाँद शेरी, रामेश्वर शर्मा 'रम्मू भैया', आकुल, श्री नरेंद्र चक्रवर्ती एवं अन्य साहित्यकारों
के साथ-साथ राजकीय महाविद्यालय, जे.डी.बी. महाविद्यालय के प्राध्यापकों, एवं शहर
के गणमान्य नागरिकों के मध्य समारोह पूर्ण गरिमा के साथ सम्पन्न हुआ. अंत
में फोटो सेशन के बाद अल्पाहार के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ.
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समारोह की स्मारिका लोकार्पित करते अतिथि बायें से डा. अतुल चतुर्वेदी, डा. औंकारनाथ चतुर्वेदी, श्री मयूख, श्री कैलाशचंद्र सर्राफ
डा. संतोष नागर एवं डा. सुबोध अग्निहोत्रि |
प्रस्तुति- डा. 'आकुल'
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