कहानी दर्द की मैं ज़िन्दगी से क्या कहता।
यह दर्द उसने दिया है उसी से क्या कहता।
तमाम शहर में झूठों का राज़ था ‘अख्तर’,
मैं अपने ग़म की हक़ीक़त किसी से क्या कहता।।
-एहतेशाम ‘अख्तर’ पाशा
कोटा। 60 पृष्ठीय रंगीन कलेवर वाली, ज्यादा से ज्यादा साहित्यकारों, विशेषकर नवोदित रचनाकारों को प्राथमिकता देने वाली, लगभग 100 रचनाकारों को बारी-बारी से प्रकाशित करने वाली, पूरे देश में नवाज़ी जा रही राजस्थान की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक राजधानी कोटा शहर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘दृष्टिकोण’ ने एक वर्ष पूरा कर लिया। ‘दृष्टिकोण’ का पाँचवाँ अंक पिछले दिनों प्रकाशित हो गया। ‘ग़ज़ल परिशिष्ट’ के रूप में यह दृष्टिकोण का संग्रहणीय अंक है।
यह दर्द उसने दिया है उसी से क्या कहता।
तमाम शहर में झूठों का राज़ था ‘अख्तर’,
मैं अपने ग़म की हक़ीक़त किसी से क्या कहता।।
-एहतेशाम ‘अख्तर’ पाशा
कोटा। 60 पृष्ठीय रंगीन कलेवर वाली, ज्यादा से ज्यादा साहित्यकारों, विशेषकर नवोदित रचनाकारों को प्राथमिकता देने वाली, लगभग 100 रचनाकारों को बारी-बारी से प्रकाशित करने वाली, पूरे देश में नवाज़ी जा रही राजस्थान की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक राजधानी कोटा शहर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘दृष्टिकोण’ ने एक वर्ष पूरा कर लिया। ‘दृष्टिकोण’ का पाँचवाँ अंक पिछले दिनों प्रकाशित हो गया। ‘ग़ज़ल परिशिष्ट’ के रूप में यह दृष्टिकोण का संग्रहणीय अंक है।
मित्रों के लिए मित्रों के सहयोग से फ्रेण्ड्स हेल्पलाइन, कोटा (राजस्थान) का यह प्रकाशन, रचनाकारों से मित्रता करने के अपने अनोखे अंदाज़ के लिए शीघ्र ही राष्ट्रीय स्तर पर अपना ख़ास स्थान बनाता जा रहा है। अहिन्दीभाषी क्षेत्र आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद से प्रकाशित साहित्यिक मासिक और एक दशक से भी अधिक समय से स्थापित हिन्दी पत्रिका ‘गोलकुण्डा दर्पण’ ने ‘दृष्टिकोण’ के पहले ही अंक से आकर्षित हो कर इस पर हैदराबाद में विचार गोष्ठी कर डाली थी। उसके समाचार आधे पृष्ठ पर छापे और इसके सुंदर भविष्य पर अपने क़सीदे सुनाये, पर यह भी कहा कि कम से कम 1 वर्ष से पहले इस पत्रिका का मूल्यांकन करना जल्दबाज़ी होगी।
पाँचवे अंक ने नई ऊर्जा के साथ साहित्यिक यात्रा की नई दौड़ आरंभ की है। दूसरे साल में प्रवेश करते हुए यह अंक ‘ग़ज़ल परिशिष्ट’ के रूप में प्रस्तु्त हुआ है। अगला अंक ‘लघु कथा’ अंक होगा, उसके पश्चात् सातवाँ अंक ‘गीत’ परिशिष्ट होगा।
अन्य विधाओं के अलावा 70 हिन्दी’ उर्दू ग़ज़लों के इस परिशिष्ट में देश के नामचीन शायरों का शुमार है। इस पत्रिका में जहाँ मशहूरोमारुफ़ आसी, हुमा, अनिल अनवर, मधुर नज्मी, एहतेशाम अख्तर पाशा, असीर, शकूर अनवर, नाज़, फ़साहत अनवर, मछलीशहरी जैसे फ़नकार हैं, वहीं स्वतंत्रता दिवस की ऊर्जा बटोरे चंद्रभानु मिश्र, मो0 रफ़ीक़ ‘राही’, सुरेश शारदा, खु़र्शीद नवाब, ने भी आज़ादी का जज्बा ग़ज़ल में प्रस्तुत किया है, और उसमें चार चाँद लगाये हैं राजस्थान विधान सभा के सदस्य रहे, राजस्थान विश्वविद्यालय के सीनेटर रहे, मधुमती और चिदम्बरा जैसी पत्रिकाओं के सम्पादक रहे, और जिनके साहित्य पर 3 पीएच0डी0 और 9 शोध हुए और उम्र के नौवें दशक में चल रहे हिंदी ग़ज़लों के शहंशाह वयोवृद्ध वरिष्ठ साहित्यकार डॉ0 दयाकृष्ण‘विजय’ ने, जिनकी प्रकाशित रचना ‘सोनाई मसि से भारत का नाम लिखें/ मानव-ऊर्जा के विराट आयाम लिखें। समिधा बन स्वातंत्र्य-समर की हवन हुए/ कुछ लिखने से पहले उन्हें प्रणाम लिखें' भी हिन्दी ग़ज़ल की एक अनूठी रचना है। डॉ0 विजय की दूसरी देशभक्ति रचना ‘देश का सबके हृदय में मान होना चाहिए—' भी हिन्दी ग़ज़ल की मिसाल है।
पत्रिका में नारी संवर्द्धन पर आकांक्षा यादव और कन्या भ्रूण हत्या पर कुँवर प्रेमिल के लेख भी ग़ज़ल का सा असर छोड़ते हैं, दिल को छू जाते हैं। ‘आपके लिए’ स्तम्भ में रचनाकारों ने जो भी लिखा है ग़ज़ल में लिखा है। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर से जिनके नाम से कहानी के लिए पुरस्कार घोषित है,ऐसी विलक्षण प्रतिभा की धनी लेखिका डॉ0 सरला अग्रवाल, राष्ट्रीय स्तर पर पहचानी जाने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘कर्मनिष्ठा’ के सम्पादक डॉ0 मोहन तिवारी ‘आनंद’, 250 से अधिक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्पूर्ण देश विदेश में ख्याति प्राप्त पेशे से आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ0 अशोक गुलशन, शिक्षाविद् प्रोफेसर प्रेम मोहन लखोटिया, भी इसमें छपे हैं। कवयित्रियों में सरोज व्यास, शोभा कुक्कल, उमाश्री और सुषमा भण्डारी ने भी ग़ज़ल में अपनी छाप छोड़ी है। छोटी छोटी 5 लघुकथाओं ने भी ग़ज़लों के बीच आकर्षित किया है। समीक्षार्थ प्राप्त़ काव्य/ग़ज़ल विधा की 8 पुस्तकों से श्रेष्ठ एक-एक रचना को समीक्षा स्वरूप ही प्रकाशित कर उसकी गरिमा को भी बनाये रखा है ‘दृष्टिकोण’ ने, ताकि शेष रचनाकार अपने अपने ढंग से पुस्तक में छिपी लेखक की प्रतिभा को जान सकें और पुस्तक का स्वमूल्यांकन कर सकें।
और अंत में हर रचनाकार के दिल में एक बार मिलने की चाहत पैदा कर देने वाले ‘आपस की बात’ में नरेंद्र चक्रवर्ती ‘मोती’ ने अपनी बात ऐसे कही है, जैसे वे आप से ही बातें कर रहे हैं, इसे पढ़े बिना तो आप रह ही नहीं सकते। बहुत कम जानते होंगे कि वे ‘मोती’ तख़ल्लुस लगाते हैं और रचनायें भी रचते रहते हैं, किन्तु सम्मानों और छपने में कम विश्वास करते हैं। ‘एकला चालो’ की तर्ज पर कुछ करते रहने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। बहुत कम सम्पादक हैं, जो इस तरह अपनी बात कहते हैं, और यही ‘दृष्टिकोण’ की ख़ूबी है।
बात परिशिष्ट की है,तो थोड़ी सी बात एक अन्य पत्रिका की भी। साहित्यिक पत्रिका ‘शब्द प्रवाह’ के अप्रेल-जून 2011 के ‘दोहा विशेषांक’ में विशेष परिशिष्ट में उज्जैन के रचनाकार श्री कैलाश सोनी ‘सार्थक’ के 16 पृष्ठ ठूँसे हुए हैं, जिनमें एक भी दोहा नहीं, गीत व ग़जल व कवितायें ही हैं। बड़ा अटपटा लगा। एक पृष्ठ भी यदि उनके दोहों का होता, तो उनके सृजन का 16 पृष्ठीय ‘विशेष परिशिष्ट’ सार्थक बन जाता। यह पत्रिका का व्यावसायिक दृष्टिकोण हो सकता है,किन्तु विशेषांक के साथ न्याय नहीं कहा जायेगा। विशेषांक के साथ विशेष परिशिष्ट नहीं लगाये जाते और वो भी अन्य विधा के। दोहों,छंदों के लिए समर्पित पत्रिका ‘मेकलसुता’ सम्पूर्ण इसी विधा की पत्रिका है,तो ‘शब्द प्रवाह’ को ‘विशेष परिशिष्ट’ के लिए दोहों के किसी निष्णात कवि का सहयोग नहीं मिला होगा, गले नहीं उतरता। आश्चर्य तो इस बात का है कि अतिथि सम्पादक ने भी इसमें आपत्ति नहीं उठाई है। हाँ, श्री‘सार्थक’सोलह पृष्ठों को अलग कर एक रंगीन या श्वेत-श्याम ग्लोज़ी पन्ने के आवरण के साथ जोड़ कर पृथक एक पुस्तिका बना कर अपनी पुस्तक शृंखला को बढ़ा सकते हैं, किन्तु पृष्ठ संख्या ने उनका यह ख्वाब भी उनसे छीन लिया है। खैर आइये, हम ‘दृष्टिकोण’ की ही बातें करें।
आज साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की प्रतिस्पर्द्धा द्रुतगति से बढ़ रहे इंटरनेट पर हिन्दी साहित्यिक ब्लॉग्स से है। नवोदित साहित्यकारों की जिजीविषा को पोषित करती पत्रिका ‘दृष्टिकोण’ का यह शैशव काल है, इसलिए इसमें सभी रचनाकारों, साहित्यकारों द्वारा उँगली पकड़कर योगदान करने का अपना दृष्टिकोण सतत बनाये रख कर अपना साहित्य-मैत्री धर्म निभाना होगा,चाहे वे छपें या न छपें। प्रबंध सम्पादक नरेंद्र चक्रवर्ती को अतिउदारतावादी दृष्टिकोण में संयम बरतते हुए इसे बुरी नज़र से बचाये रखने के सभी संभव प्रयास करने होंगे, क्योंकि उनका गैरव्यावसायिक दृष्टिकोण उन्हें सदस्यों और रचनाकारों की निरन्तर ऊर्जा प्रवाह से ही सशक्त बना पायेगा। पत्रिका में सभी साहित्य कार अपनी विधा में सिद्धहस्त लगे, जिससे यह परिशिष्ट अवश्य सराहा जायेगा।
यह अंक 15 अगस्त को पाठकों के हाथों में होना चाहिए था। कुछ विलम्ब से प्रकाशित हुआ है, इसलिए और अधिक विलम्ब न हो इसे शीघ्र निकाला गया,वरन् फिलर के रूप में भरे गये स्थानों पर लगभग 10रचनाकारों को और स्थान मिल सकता था। पिछले चारों अंकों में शामिल सम्पादकीय टीम के साहित्यकार रघुनाथ मिश्र इस अंक में नहीं हैं। बारीक चलनी और खुर्दबीन एक तरफ़ सरका कर नुक्ताचीनी को बाला-ए-ताक़ देखें तो पत्रिका राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज कराने की पूरी सलाहियत रखती है।
आज जहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सारा देश एकजुट है,वहाँ देश को पुन:सचेत करते हुए इस पत्रिका में प्रकाशित एक कवि की कल्पना की इन पंक्तियों से अपने दृष्टिकोण का समापन करना चाहता हूँ-
अनुशीलन, मंथन, चिंतन कर दृढ़ संकल्पित हों।
मार्ग बहुत है कंटकीर्ण ना पथ परिवर्तित हों।
परिवीक्षण कर कुछ करने आगे अग्रेषित हों।
नि:स्वार्थ दिलेर युवाओं का यह अन्नप्राशन पर्व।
मंगलमय हो स्वतंत्रता का स्वर्णिम पावन पर्व।।
पाँचवे अंक ने नई ऊर्जा के साथ साहित्यिक यात्रा की नई दौड़ आरंभ की है। दूसरे साल में प्रवेश करते हुए यह अंक ‘ग़ज़ल परिशिष्ट’ के रूप में प्रस्तु्त हुआ है। अगला अंक ‘लघु कथा’ अंक होगा, उसके पश्चात् सातवाँ अंक ‘गीत’ परिशिष्ट होगा।
अन्य विधाओं के अलावा 70 हिन्दी’ उर्दू ग़ज़लों के इस परिशिष्ट में देश के नामचीन शायरों का शुमार है। इस पत्रिका में जहाँ मशहूरोमारुफ़ आसी, हुमा, अनिल अनवर, मधुर नज्मी, एहतेशाम अख्तर पाशा, असीर, शकूर अनवर, नाज़, फ़साहत अनवर, मछलीशहरी जैसे फ़नकार हैं, वहीं स्वतंत्रता दिवस की ऊर्जा बटोरे चंद्रभानु मिश्र, मो0 रफ़ीक़ ‘राही’, सुरेश शारदा, खु़र्शीद नवाब, ने भी आज़ादी का जज्बा ग़ज़ल में प्रस्तुत किया है, और उसमें चार चाँद लगाये हैं राजस्थान विधान सभा के सदस्य रहे, राजस्थान विश्वविद्यालय के सीनेटर रहे, मधुमती और चिदम्बरा जैसी पत्रिकाओं के सम्पादक रहे, और जिनके साहित्य पर 3 पीएच0डी0 और 9 शोध हुए और उम्र के नौवें दशक में चल रहे हिंदी ग़ज़लों के शहंशाह वयोवृद्ध वरिष्ठ साहित्यकार डॉ0 दयाकृष्ण‘विजय’ ने, जिनकी प्रकाशित रचना ‘सोनाई मसि से भारत का नाम लिखें/ मानव-ऊर्जा के विराट आयाम लिखें। समिधा बन स्वातंत्र्य-समर की हवन हुए/ कुछ लिखने से पहले उन्हें प्रणाम लिखें' भी हिन्दी ग़ज़ल की एक अनूठी रचना है। डॉ0 विजय की दूसरी देशभक्ति रचना ‘देश का सबके हृदय में मान होना चाहिए—' भी हिन्दी ग़ज़ल की मिसाल है।
पत्रिका में नारी संवर्द्धन पर आकांक्षा यादव और कन्या भ्रूण हत्या पर कुँवर प्रेमिल के लेख भी ग़ज़ल का सा असर छोड़ते हैं, दिल को छू जाते हैं। ‘आपके लिए’ स्तम्भ में रचनाकारों ने जो भी लिखा है ग़ज़ल में लिखा है। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर से जिनके नाम से कहानी के लिए पुरस्कार घोषित है,ऐसी विलक्षण प्रतिभा की धनी लेखिका डॉ0 सरला अग्रवाल, राष्ट्रीय स्तर पर पहचानी जाने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘कर्मनिष्ठा’ के सम्पादक डॉ0 मोहन तिवारी ‘आनंद’, 250 से अधिक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्पूर्ण देश विदेश में ख्याति प्राप्त पेशे से आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ0 अशोक गुलशन, शिक्षाविद् प्रोफेसर प्रेम मोहन लखोटिया, भी इसमें छपे हैं। कवयित्रियों में सरोज व्यास, शोभा कुक्कल, उमाश्री और सुषमा भण्डारी ने भी ग़ज़ल में अपनी छाप छोड़ी है। छोटी छोटी 5 लघुकथाओं ने भी ग़ज़लों के बीच आकर्षित किया है। समीक्षार्थ प्राप्त़ काव्य/ग़ज़ल विधा की 8 पुस्तकों से श्रेष्ठ एक-एक रचना को समीक्षा स्वरूप ही प्रकाशित कर उसकी गरिमा को भी बनाये रखा है ‘दृष्टिकोण’ ने, ताकि शेष रचनाकार अपने अपने ढंग से पुस्तक में छिपी लेखक की प्रतिभा को जान सकें और पुस्तक का स्वमूल्यांकन कर सकें।
और अंत में हर रचनाकार के दिल में एक बार मिलने की चाहत पैदा कर देने वाले ‘आपस की बात’ में नरेंद्र चक्रवर्ती ‘मोती’ ने अपनी बात ऐसे कही है, जैसे वे आप से ही बातें कर रहे हैं, इसे पढ़े बिना तो आप रह ही नहीं सकते। बहुत कम जानते होंगे कि वे ‘मोती’ तख़ल्लुस लगाते हैं और रचनायें भी रचते रहते हैं, किन्तु सम्मानों और छपने में कम विश्वास करते हैं। ‘एकला चालो’ की तर्ज पर कुछ करते रहने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। बहुत कम सम्पादक हैं, जो इस तरह अपनी बात कहते हैं, और यही ‘दृष्टिकोण’ की ख़ूबी है।
बात परिशिष्ट की है,तो थोड़ी सी बात एक अन्य पत्रिका की भी। साहित्यिक पत्रिका ‘शब्द प्रवाह’ के अप्रेल-जून 2011 के ‘दोहा विशेषांक’ में विशेष परिशिष्ट में उज्जैन के रचनाकार श्री कैलाश सोनी ‘सार्थक’ के 16 पृष्ठ ठूँसे हुए हैं, जिनमें एक भी दोहा नहीं, गीत व ग़जल व कवितायें ही हैं। बड़ा अटपटा लगा। एक पृष्ठ भी यदि उनके दोहों का होता, तो उनके सृजन का 16 पृष्ठीय ‘विशेष परिशिष्ट’ सार्थक बन जाता। यह पत्रिका का व्यावसायिक दृष्टिकोण हो सकता है,किन्तु विशेषांक के साथ न्याय नहीं कहा जायेगा। विशेषांक के साथ विशेष परिशिष्ट नहीं लगाये जाते और वो भी अन्य विधा के। दोहों,छंदों के लिए समर्पित पत्रिका ‘मेकलसुता’ सम्पूर्ण इसी विधा की पत्रिका है,तो ‘शब्द प्रवाह’ को ‘विशेष परिशिष्ट’ के लिए दोहों के किसी निष्णात कवि का सहयोग नहीं मिला होगा, गले नहीं उतरता। आश्चर्य तो इस बात का है कि अतिथि सम्पादक ने भी इसमें आपत्ति नहीं उठाई है। हाँ, श्री‘सार्थक’सोलह पृष्ठों को अलग कर एक रंगीन या श्वेत-श्याम ग्लोज़ी पन्ने के आवरण के साथ जोड़ कर पृथक एक पुस्तिका बना कर अपनी पुस्तक शृंखला को बढ़ा सकते हैं, किन्तु पृष्ठ संख्या ने उनका यह ख्वाब भी उनसे छीन लिया है। खैर आइये, हम ‘दृष्टिकोण’ की ही बातें करें।
आज साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की प्रतिस्पर्द्धा द्रुतगति से बढ़ रहे इंटरनेट पर हिन्दी साहित्यिक ब्लॉग्स से है। नवोदित साहित्यकारों की जिजीविषा को पोषित करती पत्रिका ‘दृष्टिकोण’ का यह शैशव काल है, इसलिए इसमें सभी रचनाकारों, साहित्यकारों द्वारा उँगली पकड़कर योगदान करने का अपना दृष्टिकोण सतत बनाये रख कर अपना साहित्य-मैत्री धर्म निभाना होगा,चाहे वे छपें या न छपें। प्रबंध सम्पादक नरेंद्र चक्रवर्ती को अतिउदारतावादी दृष्टिकोण में संयम बरतते हुए इसे बुरी नज़र से बचाये रखने के सभी संभव प्रयास करने होंगे, क्योंकि उनका गैरव्यावसायिक दृष्टिकोण उन्हें सदस्यों और रचनाकारों की निरन्तर ऊर्जा प्रवाह से ही सशक्त बना पायेगा। पत्रिका में सभी साहित्य कार अपनी विधा में सिद्धहस्त लगे, जिससे यह परिशिष्ट अवश्य सराहा जायेगा।
यह अंक 15 अगस्त को पाठकों के हाथों में होना चाहिए था। कुछ विलम्ब से प्रकाशित हुआ है, इसलिए और अधिक विलम्ब न हो इसे शीघ्र निकाला गया,वरन् फिलर के रूप में भरे गये स्थानों पर लगभग 10रचनाकारों को और स्थान मिल सकता था। पिछले चारों अंकों में शामिल सम्पादकीय टीम के साहित्यकार रघुनाथ मिश्र इस अंक में नहीं हैं। बारीक चलनी और खुर्दबीन एक तरफ़ सरका कर नुक्ताचीनी को बाला-ए-ताक़ देखें तो पत्रिका राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज कराने की पूरी सलाहियत रखती है।
आज जहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सारा देश एकजुट है,वहाँ देश को पुन:सचेत करते हुए इस पत्रिका में प्रकाशित एक कवि की कल्पना की इन पंक्तियों से अपने दृष्टिकोण का समापन करना चाहता हूँ-
अनुशीलन, मंथन, चिंतन कर दृढ़ संकल्पित हों।
मार्ग बहुत है कंटकीर्ण ना पथ परिवर्तित हों।
परिवीक्षण कर कुछ करने आगे अग्रेषित हों।
नि:स्वार्थ दिलेर युवाओं का यह अन्नप्राशन पर्व।
मंगलमय हो स्वतंत्रता का स्वर्णिम पावन पर्व।।
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