डा0 रघुनाथ मिश्र पर लिखने को जब-जब भी क़लम उठाई है, वह जड़
हो गयी। कुछ लोगों पर लिखना आसान नहीं होता, क्योंकि मेरी आँखों के आगे रघुनाथ
मिश्र एक रूप नहीं, अनेकों रूपों में, मैंनें उनको देखा ही नहीं, मैंनें उन्हें जिया
भी है। व़े दृढ़ व्यक्तित्व के धनी हैं, वे उत्कर्ष के सोपान हैं, वे सहज मार्ग
के अनुयायी संत नज़र आते हैं, कंटकीर्ण उनके जीवन में कुछ है ही नहीं, वे सफल
सामाजिक प्राणी हैं, वे प्रेमी हैं, वे बहुत भावुक भी हैं। वे दम्भी नहीं, सत्य
को स्वीकार करने में वे पहल करने वालों में हैं। वह सहज में विचलित हो जाने वाले,
बाल स्वभाव वाले भी हैं। वे हठी भी हैं, क्योंकि वे सच्चे हैं। सिंहावलोकन उनकी
ऊर्जा है। यही कारण है कि वे कोई कार्य अधूरा नहीं छोड़ते। वार्तालाप उनका कुलिश
प्रभंजन है, जिसकी तपन से लोग उनसे दूर भागते हैं। उन जैसा बनने के लिए कितने
समर्पण की आवश्यकता होती है, यह कोई उनके साथ रह कर धैर्य से सीखे। यह कमी मेरे
भीतर भी है, पर जब भी विचलित होता हूँ, उनसे अवश्य मिलता हूँ, एक अनोखी ऊर्जा
मुझे मिलती है तब मुझे। वे कभी बाल सखा बन कर मुझसे पेश आते हैं, तो कभी मुझे
जरूरत से ज्यादा सम्मान देते हैं। कभी मुझे अपने जैसा जीने का साहस देते
दृष्टिगत होते हैं, तो कभी अपना दर्द बाँटते मेरे सामने रो पड़ते है। उनके सामने
मुझ में धैर्य न जाने कहाँ से आ जाता है। वो अलग बात है कि जलेस की हमारी योजनायें
बनती बिगड़ती रहती हैं, किन्तु उसे अमली ज़ामा पहनाने के लिए हम मूर्तरूप नहीं दे
पाते। यही कारण है कि जिस शख्स ने मज़दूर संघों मे चेतना की मशाल
जलाई और कंधे से
कंधा मिला कर न्याय के लिए सत्ता तक को चुनौती दी, आज अकेला न हो कर भी अकेला
है, यह कड़वा सच है। जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों में से हैं वे। आज उन
सब से दूर रह कर भी, हाड़ौती अंचल में अपनी एक अलग पहचान बनाये हुए हैं, कोई उन्हें
आज तक डिगा नहीं पाया। ‘जनवाद के पुरोधा’ रघुनाथ सहाय मिश्र, प्यार से जिन्हें
रघुनाथ मिश्र और साहित्य संसार उन्हें डा0
रघुनाथ मिश्र के नाम से जानता है।
यूँ ही नहीं बन जाता कोई पुरोधा। उनमें ये गुण मैंने तब
देखे, जब मुझे सौभाग्य मिला, उनकी रचनाओं का सम्पादन कर, उनकी पहली और एक मात्र
पुस्तक बनाने का। डा0 मिश्र ने दशकों तक रचनायें लिखीं थीं, जिन्हें ढूँढ़-ढूँढ
कर निकाला गया। उनकी पहली पुस्तक ‘सोच ले तू किधर जा रहा है’। यह पुस्तक,
एक चुनौती देती है, जीने का मार्ग चयन करने की। पूरी तरह जनवाद से ओतप्रोत, पर
रचना कर्मी श्री मिश्र मशगू़ल रहे, जनवादी क्रांति में आम आदमी की समस्याओं में
जूझते, उनसे जुड़ते, लोगों को जोड़ने में, एक राह प्रशस्त करने में, जो कंटकीर्ण हो
या फूलों से भरी, उन्होंने न मौसम देखा, न उम्र; न वक्त देखा, न वाक़या, बस रचनाधर्मिता की राह पर चलते रहे, चाहे वह राह, एक
स्वस्थ और जागरूक समाज की संरचना की हो या साहित्य सृजन की। कभी नहीं सोचा कि
प्रतिष्ठा के लिए एकाध पुस्तक का प्रकाशन करूँ। सैंकड़ों नुक्कड़ नाटक खेले,
रंगमच पर हर रूप जिया, किंतु साहित्य के क्षेत्र में किसी प्रतिष्ठा की अभिलाषा
उन्हें कभी नहीं रही। उनका जीवन दर्शन था मुफ़लिसों के बीच बैठ कर उनके दुख-सुख की
सुनना। फ़ाक़ाकशी के मंज़र भी देखे उन्होंने।
डा0 रघुनाथ मिश्र, ग़ज़लों के प्रतिनिधि रचनाकार हैं, ग़ज़ल
उनका शग़ल है। हिंदी ग़ज़ल पर वह लंबी बात कर सकते है। वे मुक़म्मल दोहाकार भी हैं। किसी
भी विषय पर बिना तैयारी किये बोलना, उनकी स्वाभाविक प्रकृति है, जो ज्ञान और
अनुभव की देन है। वे बहुत ही सफल अधिवक्ता, अभिभाषक और वकील रहे हैं। अर्थ भले ही
तीनों के एक ही हों पर प्रकृति हर शब्द की शब्दार्थ की तरह अलग-अलग है। श्री
मिश्रा ने आजीविका के इन तीनों प्ररूपों में सफलता प्राप्त की है। वे शहर के
वरिष्ठ अभिभाषक ही नहीं, वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं। युवा
कवियों को हमेशा वे प्रेरणा देते हैं, वे असफलता को भी सफलता के आईने से देख कर,
चतुराई से सँभल जाते हैं, यह विशेषता प्राय: कम लोगों में देखने को मिलती है। डा0
मिश्र का इसमें सानी नहीं। अपनी बात मनवाने में वे उस्ताद हैं। बहुत कुछ लिखा जा सकता है उन पर, इसलिए इतना लिख कर ही
इतिश्री कर रहा हूँ-
बचा के रखा है मैंनें / उनके लिए कुछ क़तरों को /कब काम
आ जाय / उनसे वफ़ा न कर सकूँ / तो जफ़ा भी / न हो जाये कहीं मुझसे।
श्री पंकज पटेरिया सम्पदित 'शब्द ध्वज' में श्री रघुनाथ मिश्र पर प्रकाशित मेरे मूल आलेख के प्रकाशित अंश। 'शब्द ध्वज' का 27 मार्च 2013 को प्रकाशित अंक डॉ0 रघुनाथ मिश्र पर आधारित था।- आकुल
धन्यवाद 'आकुल'. सुन्दर प्रस्तुति ने भावबिभोर कर दिया. समाचार के रूप मेँ सारगर्भित और विस्तार से कहे गये हर शब्द बडे कीमती हैँ. हार्दिक बधाई और शुबोज्ज्वक भविश्य की हार्दिक शुभकामनायेँ,
जवाब देंहटाएंशुभेक्षु,
डा. रघुनाथ मिश्र्